भारत को संस्कृतियों और परंपराओं से समृद्ध देश माना जाता है, और नंगे पांव जाना भारतीय सांस्कृतिक के उन रीति-रिवाजों में से एक है। इसे मंदिरों और मस्जिदों जैसे पवित्र स्थानों के सम्मान के प्रतीक के रूप में गिना जाता है। लेकिन उससे हट कर देखा जाएगा तो खेलने के लिए नंगे पांव जाना बेहद ही अजीब लगता है।
हालांकि, भारतीय खेलों के इतिहास में ऐसा ही हुआ था जब पूर्व महान भारतीय हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद और महान धावक पीटी उषा ने अपनी-अपनी प्रतियोगिताओं में नंगे पैर जाने का विकल्प चुना था। लेकिन यह भारतीय खेल बिरादरी के लिए शर्मिंदगी का कारण बन गया जब उन्होंने पहली बार ब्राजील में आयोजित 1950 के फीफा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया।
साल 1950 के विश्व कप में भारतीय टीम को स्वीडन, इटली और पैराग्वे के साथ समूह में रखा गया था। लेकिन अंततः, फुटबॉल फीफा बोर्ड ने टूर्नामेंट से भारतीय टीम पर प्रतिबंध लगा दिया। क्योंकि उन्हें पता चला कि टीम वहां फुटबॉल वाले जूते न पहनकर नंगे पांव खेलेगी। बता दें कि, यह पहली बार था जब भारत ने फुटबॉल के इस मार्की टूर्नामेंट के लिए क्वालीफाई किया था।
उसके बाद स्वतंत्र भारत की पहली फुटबॉल टीम साल 1948 के लंदन ओलंपिक में नंगे पांव खेली थी। चोट से बचने के लिए सबने अपने पैरों में पट्टी बंधी थी।
प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार गौतम रॉय का भी इस संबंध में कुछ कहना है। उन्होंने कहा कि, "पहले, भारतीय टीम के खिलाड़ी नंगे पांव फुटबॉल खेलने के आदि थे, इसलिए कई लोग जूतों के साथ खेलने में असमर्थ रहते थे। लेकिन साल 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में यूगोस्लाविया के खिलाफ 1-10 की हार के बाद ही भारतीय फुटबॉल में जूते अनिवार्य किए गए थे।"